काको की धरती पर ‘पेन ब्रश’ की शूटिंग: जहां अदब, अमन और उम्मीद की रौशनी है



लेखक: (सैयद आसिफ इमाम काकवी ख़ास दुबई से )
“जय जहानाबाद, जय बिहार, जय हिंद!” फ़िल्म अभिनेता हैदर काज़मी की यह भावुक पुकार न केवल एक अभिनेता की आवाज़ है, बल्कि वह सच्चा सलाम है उस बदलते बिहार को, जहाँ अब रात के सन्नाटे में भी रौशनी की तरह फ़िल्में शूट होती हैं।
हैदर काज़मी इन दिनों अपने अबाई वतन काको में फ़िल्म ‘पेन ब्रश’ की शूटिंग कर रहे हैं। उनका यह बयान, जो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया — “एक समय था जब लोग जहानाबाद में दिन में भी निकलने से घबराते थे लेकिन आज देखिए, हम रात के 2 बजे शूटिंग कर रहे हैं…” — यह उस सामाजिक परिवर्तन की तस्वीर है जो आज का बिहार पेश कर रहा है।
काको, जहानाबाद का वह ऐतिहासिक इलाक़ा है, जो अपने भीतर उर्दू अदब, गंगा-जमुनी तहज़ीब, मस्जिद-मंदिर की साझी विरासत, और सूफ़ियाना रंग समेटे हुए है।
यहाँ की काको की दरगाह में आज भी सूफ़ी संतों की मजारें अमन का पैग़ाम देती हैं। काको का पानीहास, काको जेल, और पुरानी मस्जिदें-मंदिरें इस इलाके की गहरी ऐतिहासिक परतों को सामने लाते हैं।
हैदर काज़मी ने साफ़ तौर पर इस सुकूनभरी रात की शूटिंग का श्रेय स्थानीय प्रशासन, बिहार पुलिस, और सबसे बढ़कर यहाँ की प्यारी जनता को दिया। यह सच है कि बदलाव तभी स्थायी होता है जब पुलिस और जनता साथ मिलकर अमन कायम करें।
‘पेन ब्रश’ की शूटिंग काको में होना केवल एक फ़िल्म निर्माण नहीं, बल्कि काको के इतिहास और वर्तमान को राष्ट्रीय मंच पर पहुँचाने की कोशिश है। यह फ़िल्म इस ज़मीन की उन कहानियों को उजागर करेगी जिन्हें अब तक नज़रअंदाज़ किया गया।
हैदर काज़मी जैसे कलाकार जब अपने गाँव-कस्बों को शूटिंग स्पॉट बनाते हैं, तो वह केवल सिनेमा नहीं बना रहे होते — वे अपने अतीत को सजदा कर रहे होते हैं, अपने बचपन की गलियों में नयी रचनात्मकता भर रहे होते हैं।
आज का काको एक मिसाल है — जहाँ इतिहास, सूफ़ियाना रुह, और विकास साथ-साथ चल रहे हैं।
वक़्त की सुइयाँ जब रात के दो बजते हुए लम्हों को छू रही थीं, तब हम काको बाज़ार, जिला जहानाबाद की पुरअसरार गलियों में फ़िल्म “पेन ब्रश” की शूटिंग कर रहे थे। यह वही काको है, जिसकी फ़िज़ाओं में सूफ़ी किरनें बसी हैं, जहाँ हर गली में कोई न कोई कहानी साँस लेती है, और जहाँ रात भी कभी-कभी दिन का लिबास पहन लेती है।
यह कोई आम रात नहीं थी। अंधेरे में भी रौशनी की एक तलाश थी। कैमरे की लाइटें, लोगों की आवाजें, और आँखों में एक सपना — यही तो है सिनेमा! जब पूरी दुनिया सो रही थी, हम जाग रहे थे — अपने फ़न के लिए, अपने जज़्बे के लिए, अपनी मिट्टी की कहानी को परदे पर लाने के लिए।
काको का बाज़ार उस वक़्त सुनसान था, लेकिन हमारे कैमरे की आँखें उसमें जान डाल रही थीं। हर सीन, हर डायलॉग, हर एक्शन के साथ लगता था जैसे यह ज़मीन बोल रही हो।
यह फ़िल्म “पेन ब्रश” सिर्फ़ एक कहानी नहीं, यह उस कलाकार की तहरीर है जो समाज के रंगों को अपने ब्रश से उकेरना चाहता है। और यह शूटिंग, उस तहरीर की पहली इबारत है।
दोस्तों, जब रात गहरी हो और थकावट आँखों पर दस्तक देने लगे, तब भी अगर दिल में जुनून ज़िंदा हो — तो समझो कि तुम सही रास्ते पर हो। काको की यह रात भी हमें यही सिखा रही थी — कि सपने सिर्फ़ सो कर नहीं, जाग कर पूरे होते हैं।