जीवन और जातिवाद


जीवन के साथ जिंदगानी चाहिए
जीवन में हर पल रवानी चाहिए
एक दिन का त्योहार मंजूर नहीं
त्योहारों में जिंदगानी चाहिए ।
हर दिन होली, हर दिन दिवाली
ना सिर्फ़ अपना तराना चाहिए,
सबका जीवन खुशियों से भरा हो
ऐसा ही जीवन सुहाना चाहिए।
मानस में बैठा मानवीयता का छाप
सबके जीवन में जिंदगानी चाहिए,
जो देते हैं जातिवाद को हवा
उन्हें इंसानियत की कीमत बतानी चाहिए।
छोड़ दो चौराहे पर तड़पकर दम तोड़ दें,
क्यूंकि ऐसे व्यभिचारियों को
जातिवाद का मजा चखाना चाहिए।
कह दो उनसे जातिवाद छोड़ें
मानवीयता से नाता जोड़ें।
जाति सबको प्रिय है पर,
जातिवादी जहर ना घोलें ।
तुम टुकड़ों में तोड़ोगे पर मैं जोड़ूंगी,
क्यूंकि मुझे मेरा समाज चट्टानी चाहिए।
मुझे नहीं बनना तुम जैसा,
मुझे चंद दिनों की ज़िंदगी स्वाभिमानी चाहिए।
जाति-जाति करके कौन हुआ जातिवाला
जन-जन जिसको भाता न हो,
कोई और जिसे सुहाता न हो
इंसानियत से सरोकार न हो
सामाजिकता स्वीकार न हो,
भला कैसे हो सकता जाति रखवाला?
बता दूं! जाति से जनहित नहीं,
परहित बगैर स्वहित नहीं,
फिर जातिवाद का जहर क्यूं घोलना
जब अपने ही घरों में सब मीत नहीं..!!
मानसी सिंह (अनुसंधायिका)
स्नातकोत्तर, हिंदी विभाग
मगध विश्वविद्यालय, बोधगया (बिहार)।