भोजपुरी की अमर विभूति: भिखारी ठाकुरखुशी मिश्र


भोजपुरी के शेक्सपियर, अनगढ़ हीरा, भोजपुरी के भारतेन्दु – न जाने किन-किन विशेषणों से विभूषित किया गया है अमर विभूति भिखारी ठाकुर को। ये सभी शब्दावलियां उनके भोजपुरी साहित्य,नाट्य – रंगकर्म में उनके योगदान को रेखांकित करती हैं। भोजपुरी के इस अनमोल रतन भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसम्बर 1887 को सारण जिला के कुतुबपुर गांव में तथा निधन 10 जुलाई 1971 को हुआ।
कवि, नाटककार, गीतकार, अभिनेता, लोक नर्तक , लोक गायक और सामाजिक संदेशवाहक के रूप में समाज को उन्होंने बहुत दूर तक प्रभावित किया। उनकी रचनाओं में एक दर्जन से अधिक नाटक, एकालाप , कविताएं और भजन शामिल हैं जो लगभग तीन दर्जन पुस्तकों में छपे थे। उनकी रचनाओं में बिदेसिया , गबरघिचोर , बेटी बेचवा और भाई बिरोध,पियऊ निसइल आदि प्रमुख हैं। ठाकुरजी की कीर्ति का मूलाधार उनका ‘बिदेसिया ‘ नाटक है,जो रोजगार के लिए पलायन, उससे उपजी विसंगतियों पर चोट करता है तो
बेटी बेचवा तिलक दहेज की कुप्रथा पर। उनके तमाम नाटकों में सामाजिक विसंगतियों से उपजा प्रतिफल है और वे आज के दौर में और अधिक प्रसांगिक हैं। इस संदर्भ में उनके नाटक ‘गबरघिचोर’ की तुलना अक्सर बर्टोल्ट ब्रेख्त के नाटक द कॉकेशियन चाक सर्किल से की जाती है ।
1900 के दशक की शुरुआत में ठाकुरजी ने पुश्तैनी पेशा छोड़ निर्देशक,ट्रेनर,अभिनेता, लेखक, गायक और नर्तक के रूप में अपना जीवन शुरू किया था तथा अपनी मृत्यु तक वे सक्रिय रहे। ठाकुरजी की अधिकांश रचनाएँ 1938 और 1962 के बीच प्रकाशित हुईं। शुरुआती रचनाओं में संवाद और संगीत नाटक हैं तो बाद की रचनाएँ दार्शनिक, भजन, हरिकीर्तन और विविध विषयों पर केंद्रित हैं।
भरौली, भोजपुर